आलस्य -शिक्षाप्रद हिंदी कहानी
आलस्य ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है

प्राचीन काल में एक महा प्रतापी गुरु थे वे अपने सभी शिष्यों से बहुत स्नेह रखते थे | गुरुजी अपने सभी शिष्यों के प्रत्येक गुण और दोषों के बारे में पता कर उन्हें भविष्य के लिए तैयार करते थे | उनका एक ही मात्र लक्ष्य था कि उनका प्रत्येक शिष्य जीवन के हर पड़ाव पर हिम्मत से आगे बढ़े |
उनके इन शिष्यों में एक शिष्य ऐसा था जो अत्यंत भोला एवं स्वभाव का बड़ा ही कोमल और सरल विचारों वाला था ।लेकिन वह बहुत अधिक आलसी था | आलस्य के कारण ही उसे कुछ भी पाने का मन नहीं था | वो बिना कर्म के मिलने वाले फल में रूचि रखता था | उसका यह अवगुण गुरु की चिंता का कारण बन रहा था | वे दिन रात अपने उसी शिष्य के विषय में सोचते रहते थे |
एक दिन गुरुजी ने पारस पत्थर की कहानी अपने सभी शिष्यों को सुनाई | इस पत्थर के बारे में जानने के लिए सबसे अधिक जिज्ञासु वही शिष्य था | यह देख गुरु उसकी मन की बात समझ गये | वे समझ गये कि यह आलसी हैं इसलिए उसे इस चमत्कारी पत्थर की लालसा हैं | लेकिन ये मुर्ख यह नहीं जानता कि जो व्यक्ति कर्महीन होता हैं | उसकी सहायता तो स्वयं भगवान भी नहीं कर सकते और ये तो बस एक साधारण पत्थर हैं | यह सोचते- सोचते गुरुजी ने सोचा कि यही उचित समय हैं इस शिष्य को आलस्य के अवगुणों से अवगत कराने का | ऐसा सोच गुरुजी ने उस शिष्य को अपनी कुटिया में बुलवाया |
कुछ समय बाद, वह आलसी शिष्य कुटिया के भीतर प्रवेश करता है और गुरु को सिर झुकाकर प्रणाम करता है । गुरु ने आशीर्वाद देते हुए कहा – बेटा ! मैंने आज जिस पारस पत्थर की कहानी सुनाई वो पत्थर मेरे पास हैं और तुम मेरे प्रिय शिष्य हो इसलिए मैं वो पत्थर सूर्य उदय से लेकर सूर्यास्त तक के लिए तुम्हें देना चाहता हूँ | तुम उससे जो करना चाहों कर सकते हो | तुम्हें जीतना स्वर्ण चाहिये तुम इस पारस पत्थर से इस दिए गये समय में बना सकते हो | यह सुनकर शिष्य की ख़ुशी का ठिकाना न रहा | गुरु जी ने उसे प्रातः सूर्योदय होने पर पत्थर देने का कहा |रात भर वह आलसी शिष्य इस पत्थर के विषय में सोचता रहा |
अगले दिन, शिष्य ने गुरु जी से पत्थर लिया और सोचने लगा कि कितना स्वर्ण मेरे जीवन के लिए पर्याप्त होगा ? और इसी चिंतन में उसने आधा दिन निकाल दिया | भोजन कर वो अपने कक्ष में आया | उस वक्त भी वह उसी चिंतन में था कि कितना स्वर्ण जीवन यापन के लिए पर्याप्त होगा और यह सोचते-सोचते आदतानुसार भोजन के बाद उसकी आँख लग गई और जब आँख खुली तब दिन ढलने को था और गुरूजी के वापस आने का समय हो चुका था | उसे फिर कुछ समझ नहीं आया | इतने में गुरु जी वापस आ गये और उन्होंने पत्थर वापस ले लिया | शिष्य ने बहुत विनती की लेकिन गुरु जी ने एक ना सुनी |
तब गुरु जी ने शिष्य को समझाया पुत्र ! आलस्य व्यक्ति की समझ पर लगा ताला हैं | आलस्य के कारण तुम इतने महान अवसर का लाभ भी ना उठा सके जो व्यक्ति कर्म से भागता हैं उसकी किस्मत कभी उसका साथ नहीं देती | तुम एक अच्छे शिष्य हो परन्तु तुममे बहुत आलस्य हैं | जिस दिन तुम इस आलस्य के आवरण से बाहर आआगें , उस दिन तुम्हारे पास कई पारस के पत्थर होंगे | शिष्य को गुरु की बात समझ आगई और उसने स्वयं को पूरी तरह बदल दिया | उसे कभी किसी पारस पत्थर की लालसा नहीं रही |
कहानी से सीख:- आलस्य ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु हैं।
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